वक़्त की रेत


चक्के  खेलते थे
और चाँद तले, छत के ऊपर
कुछ अपना ही गुनगुनाते थे
हँसते थे,
तू मुझपे, मैं तुझपे,
देखती थी तू
उस बरखा में ,
मैं फिसल तो नहीं गई ...

अब तो बरसात भी नयी
और चाँद भी कुछ और,
वक़्त की रेत, जो फिसल गयी ।

साईकल में अपने पीछे बिठाकर
काफी चक्कर काटे थे ,
मोहल्ले में जब रात को, गहरे कितने सन्नाटे थे
कोई कहानी फिर भी हम फ़ुसफ़ुसा ही जाते थे ,
बचपन कि वो बातें , अब यादों का बवाल हो गयी,
ज़िन्दगी हमारी अलग रास्तों पर , निसार हो गयी

अब तो तू भी दूर ,
मैं भी ग़ुम  कहीं और,
वक़्त की रेत, जो फिसल गयी ।।

Comments

Apoorva Tikku said…
This is so beautiful.
Every person can relate to this poem of yours.
Makes me wonder, 'Why did we have to grow up?'
Anuradha Sharma said…
WOW! Simpley wonderful. Fascinating!!
Vidisha Barwal said…
thankyou so much :)

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