दहलीज़
कि समक्ष एक अलग दुनिया है ...
जो बुला रही है चीख-चीख कर,
जैसे खींच रही है...
जानता नहीं आगे क्या है !
बस ... भरोसा है |
और शायद उम्मीद... कुछ... खुद से...
वही परछाईं आगे बुला रही है ,
आँखें... मीच रही हैं |
पीछे देखूं ...
तो जैसे वक़्त की तीखी सूईआं हैं,
जो कभी ... किसी की हुई नहीं |
यही अफ़सोस लेकर... मैं बढ़ रहा हूँ ...
कि वो घड़ी रूकती कहीं,
तो दो पल मैं भी ठहर पाता,
और साथ में इनके यादें हैं...
भर-भर कर... उस एल्बम में,
जो फ्रिड्ज के ऊपर रखी है,
कहानियाँ संजोये हुए ...
आगे है एक मौका सा...
बढ़ने का ...किसी रास्ते पर,
जो बुला रहा है सींच-सींच कर,
जैसे रुकने के लिए मैं कभी बना नहीं !
और अब रुका भी हूँ ... तो किस चीज़ पर ?
जहाँ पुरानी पतंग और नई डोर,
मिलते हुए दिख रहे हैं |
मैं हूँ ... इस... देहलीज़ पर ...
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