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मैं चल रहा हूँ जहाँ

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मैं चल रहा हूँ जहाँ , सोच रहा हूँ , इस कीचड़ के गड्ढे में , अगर कूदूँ  तो क्या हो.... हरे पेड़ की गोद  में , जहाँ मैना का एक घोंसला है, एक डाली पर चढ़कर , झूल जाऊँ तो क्या हो .... पीछे छोड़ी एक कतार मैंने , मुझसे भी छोटी थीं वो , थकती नहीं चींटियाँ अपने रास्ते पर , उनके साथ मैं भी कदम बढ़ाऊं , तो क्या हो .... मैं चल रहा हूँ जहाँ , मिट्टी  का रास्ता है, गीली मिटटी उठाकर सोच रहा हूँ , अलादीन का महल बनाऊं , तो क्या हो .... ये बड़ा सा जंगल , और बड़े बड़े पेड़ , जहां मुझसे भी छोटे 'लोग' रहते हैं , उन लोगों को देखकर , मैं मुस्कुराऊं  तो क्या हो .... बारिश थम गयी है , अँधेरे से मौसम में , सोच रहा हूँ , मैं बादलों को कोई कहानी सुनाकर , थोड़ी धुप चुरा लाऊँ , तो क्या हो.... मैं चल रहा हूँ जहाँ , सोच रहा हूँ....।