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गिरफ्तार

अपनी ही सोच में  गिरफ्तार हुँ  मैं । बाहर अकेले चलूँ   सौ नज़रों से ऊपर उठकर, फिर भी हुँ एक धागे में पिरोयी हुई सुई,  ज़माने पहले की बेड़ियों को  तोड़कर चाहे मरोड़ूँ,  फिर भी ज़माने क तजुर्बे में  गिरफ्तार हुँ  मैं । खामोशी सी पसंद करूँ कभी  तो उठने वाले हज़ार सवाल हुँ  या किसी की नाराज़गी में चीनी हुई  खामोश दीवार हुँ, शोर मचाऊँ, तो आंसुओं सैलाब हुँ,  कुछ बना रखे थे ठिकाने से   अपने लिए  जिनपर चलना हमेशा से बाकी है,  पर एक यकीन है  फ़र्ज़ी सा,  कि चाह कर भी वो मिलेगा नहीं  क्युंकि खुद की गिरह में  कहीं भीतर सी  गिरफ्तार हुँ  मैं।  है ख़ुशी कि कोई झलक  साथ रहती है मेरे,  वो झलक ओझल है  या शायद मेरी आँखें धुंधली  उस झलक की ख़ुशबू ऐसी  जिसमें सौ फ़ूलों की महक,  वो फ़ूल जिनकी कायल हुँ  मैं  जिन्हे संजोने की चाह में  डर है,  कहीं मुरझा न जाएँ,  वो झलक है जो, उसे कैद करने के इंतज़ार में गिरफ्तार हुँ  मैं,  अपनी ही सोच में  गिरफ्तार हुँ  मैं, गिरफ्तार हुँ  मैं।