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क्या होता है तुम्हारे साथ भी ऐसा ?

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क्या होता है तुम्हारे साथ भी ऐसा ? या मैं कुछ अलग हूँ ! इस दुनिया में चल रही हज़ारों लोगों की ज़िन्दगी चंद नमूनों के कारण थम जाती है। वो मदारी के भांति उन्हें नचाते रहते हैं। शायद... मैं भी उसी भीड़ में एक जमूरा हूँ। मगर ये कैसा नाच है ? जिसमें किसी की मर्ज़ी नहीं होती, जिसमें कदम चलते तो हैं मगर मानो किसी जंग के लिए। ऐसी जंग जिसमें न तलवार है न ही कोई बन्दूक। बस, एक सोच है। सोच ! जिसके तले ये तमाशा बन रहा है और मैं इस  नाटक में समायी हुई हूँ। क्या तुम भी इस नाटक में कोई कलाकार हो? या मैं कुछ अलग हूँ ! आँखें हैं सभी की जो देखती होंगी सब कुछ। हैरान न होना यदि मैं कहुँ की मेरी भी आँखें हैं जो स्वयं को दुनिया में पाकर स्वयं से अनजान और कमज़ोर पा रही हैं।  इस भाग-दौड़ में तो मैं भूल ही गयी कि सबके पास एक अपनी छोटी ज़िन्दगी है, जिसे बड़ा कहने में मुझे कोई हर्ज़ नहीं, जिसे सजाने की चाह में सब किसी सोच की लपेट में हैं, माफ़ करना, चपेट में हैं।  क़ैदख़ाने की आज़ादी में अब अपने पंख फड़फड़ा रही हूँ किसी पंछी के भांति और विशवास है साथ कि एक दिन  मैं भी महात्माओं के भांति उस सोच का तोड़ निकालूंगी जिसम